क्या है स्वप्न आखिर?

दृश्टम् च अदृष्टम्' - जो देखा हुआ हैं व जो नहीं देखा हुआ हैं। 'श्रुतम् च अश्रुतम्' - जो सुना हुआ हैं व जो नहीं भी सुना हुआ हैं । 'अनुभूतम् च अननुभूतम्' - जो अनुभव किया हुआ हैं व जो अनुभव नहीं भी किया हुआ हैं - ये सब सत्- असत् अनुभव हमारा मन स्वप्न में कराता हैं ।
अब यह किस प्रकार संभव हैं ? अनदेखे-अनसुने अनुभव को देखना व सुनना? इस जटिल प्रहेलिका का सटीक उत्तर देने में आधुनिक विज्ञान असमर्थ हो गया। मनोविज्ञान का शोध क्षेत्र हो या पैरा साईकोलाजी कोई भी इस विषय में कोई स्पष्ट सिद्धान्त नहीं रख पाया । किन्तु यहा भी हमारे ऋषियों का ज्ञान - वेदान्त-विज्ञान एक अनुपम उत्तर प्रदान करता है..."तस्य वा एतस्य पुरुषस्य द्वे एव स्थाने भवत । इदं च परलोकस्थानं च संध्यं..." अर्थात - इस पुरुष(जीवात्मा) के दो स्थान हैं। एक जिसे 'जागृत-स्थान' कहते हैं, दूसरा परलोक-स्थान जिसे 'सुषुप्ति-स्थल'कहा जाता हैं। इन दोनों स्थानो की संधि में जो तीसरा स्थल हैं वह 'स्वप्न-स्थान' कहा जाता हैं। स्वप्न वह संधि-द्वार हैं जो 'जागृत' व 'सुषुप्ति' इन दोनों के मध्य हैं। जिससे हम जागृत संसार व सुषुप्ति के दिव्यलोक दोनों में झांक सकते हैं। यही कारण हैं कि स्वप्न स्थिति में हमे जागृत संसार के देखे व सुने हुये अनुभव होते हैं व सुषुप्ति की अनदेखी-अनसुनी अनुभूतिया होती हैं ।

इन शास्त्रोक्त आकलनों के आधार पर स्वप्नों का अवलोकन करते हैं, तो उन्हे हम तीन वर्गो में रख सकते हैं
» पहला वर्ग - दैनिक जीवन की प्रतिछाया।
» दूसरा वर्ग - अवचेतन मन से उद्घृत पूर्व संस्कार।
» तीसरा वर्ग - अलौकिक स्वप्न।

पहले वर्ग के स्वप्न साधारण होते हैं जो जागृत जगत से ही संबंध रखते हैं। जो सोच-विचार या भाव दिन भर हावी रहता हैं, उसी का छायांकन होते हैं। यही नहीं बल्कि जीवन मे हमने कभी भी कोई अनुभव किया हो जो मस्तिष्क के किसी कोने में जमा हो , वह भी स्वप्न में स्पष्टतः या भेद से आ जाता हैं। भेद से यानि उलजुलूल तरह से आने का कारण हमारी तंत्रिकाओ के एक से अधिक अनुभवो में उलझ जाने के कारण हुआ करता हैं । इन स्वप्नों का सात्विक, तामसिक या राजसिक होना हमारी प्रवृत्ति व प्रकृति पर निर्भर करता हैं। कुल मिलाकर इस वर्ग के स्वप्न जागृत जगत से ही जुड़े होते हैं।

दूसरे वर्ग के स्वप्न वे हैं जिनका जागृत जगत व उसकी विषय वस्तु से कभी कोई संबंध नहीं रहा। आपने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में उस प्रकार का कोई अहसान अथवा अनुभव नहीं किया होता । फिर ऐसे स्वप्न कहा से उत्पन्न होते हैं ? दरअसल इसका मूल हमारा चेतन या जागृत मन नहीं, अपितु अवचेतन मन का ताल होता हैं। इस तल पर हमारे पूर्व जन्मो के संस्कार समाहित हुआ करते हैं। वही संस्कार उद्भूत होकर स्वप्नों का ताना-बाना बुनते हैं, तथा हमे अनदेखे दृश्य दिखा जाते हैं। इस विषय में एक सत्य घटना पढ़ी थी - इटली के गेस्टन नाम के एक मनोविज्ञानी थी । जब वे बालक थे तब उन्हौने एक रात्रि में अद्भुद स्वप्न देखा , जिसमे एक पुरातन सांस्कृतिक मंदिर था और उसमे वह पुजारी है और बिलकुल अलग प्रकार के विधिविधानों से पूजा-पाठ कर रहे हैं। स्वप्न से पूर्व न तो उन्हौने कभी वो मंदिर देखा था और न ही पुजा-पाठ के ऐसे विधान। उस स्वप्न का स्मरण उन्हे सदैव बना रहा । किन्तु समाधान मिला तब जब वे वर्षो बाद भारत के पर्यटन पर आए और भ्रमण करते हुये पहुच गए - महाबलीपुरम नगर के एक मंदिर के सामने। वह स्तब्ध रह गए। इस संयोग का उत्तर न स्वयं उनके पास था न अन्य किसी मनोवैज्ञानिक के पास। यह तो मात्र अवचेतन मन में स्थित पूर्व जन्मो के संस्कारो में ही निहित हैं। अतः जो स्वप्न हमे अज्ञात प्रतीत होते हैं। उनका धरातल 'अचेतन' ही होता हैं, जिन तक हम सुषुप्ति की आरंभिक स्थिति में पहुच जाते हैं।

तीसरे वर्ग के अकूत प्रेरणाओ से भरे अलौकिक स्वप्नों का अवलोकन, इस प्रकार के स्वप्न के बारे मे आगे भविष्य में बताया जाएगा। इस वर्ग में स्वप्न-स्थिति में ऐसी-ऐसी दिव्यानुभूतिया हो जाती हैं, जो वर्तमान व भावी जीवन का दिशा-निर्देशन कर देती हैं।
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