विनय पत्रिका: गंगा-स्तुति: पद 2 (Vinay Patrika: Ganga Stuti: Pad 2)


जयति जय सुरसरी जगदखिल-पावनी ।
विष्णु-विष्णुपदकंज-मकरंद इव अम्बुवर वहसि, दुख दहसि, अघवृन्द-विद्राविनी ॥ १ ॥
मिलितजलपात्र-अजयुक्त-हरिचरणरज, विरज-वर-वारि त्रिपुरारि शिर-धामिनी ।
जह्नु-कन्या धन्य, पुण्यकृत सगर-सुत, भूधरद्रोणि-विद्दरणि, बहुनामिनी ॥ २ ॥

यक्ष, गंधर्व, गंधर्वमुनि, किन्नरोरग, दनुज, मनुज मज्जहिं सुकृत-पुंज युत-कामिनी ।
स्वर्ग-स्वर्गसोपान, विज्ञान-ज्ञानप्रदे, ज्ञानप्रदेमोह-मद-मदन-पाथोज-हिमयामिनी ॥ ३ ॥

हरित गंभीर वानीर दुहुँ तीरवर, मध्य धारा विशद, विश्व अभिरामिनी ।
नील-पर्यक-कृत-शयन सर्पेश जनु, जनुसहस सीसावली स्त्रोत सुर-स्वामिनी ॥ ४ ॥

अमित-महिमा, अमितरूप, भूपावली-मुकुट-मनिवंद्य त्रेलोक पथगामिनी ।
देहि रघुबीर-पद-प्रीति निर्भर मातु, मातुदासतुलसी त्रासहरणि भवभामिनी ॥ ५ ॥
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विनय पत्रिका

गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका ब्रज भाषा में रचित है। विनय पत्रिका में विनय के पद है। विनयपत्रिका का एक नाम राम विनयावली भी है।

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श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 44

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