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श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 48 (Shri Ramcharitmanas Sundar Kand Pad 48)


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चौपाई:
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही ।
आवे सभय सरन तकि मोही ॥1॥
तजि मद मोह कपट छल नाना ।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना ॥
जननी जनक बंधु सुत दारा ।
तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा ॥2॥

सब कै ममता ताग बटोरी ।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं ।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं ॥3॥

अस सज्जन मम उर बस कैसें ।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें ।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें ॥4॥

दोहा:
सगुन उपासक परहित निरत
नीति दृढ़ नेम ।
ते नर प्रान समान मम
जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥48॥
यह भी जानें
हिन्दी भावार्थ

(श्री राम जी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिव जी और पार्वती जी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (संपूर्ण) जड़-चेतन जगत्‌ का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए,॥1॥

और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार॥2॥

इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है॥3॥

ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता॥4॥

जो सगुण (साकार) भगवान्‌ के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं॥48॥

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