श्री रामचरितमानस: अयोध्या काण्ड: पद 100 (Shri Ramcharitmanas: Ayodhya Kand: Pad 100)


चौपाई:
जासु बियोग बिकल पसु ऐसे ।
प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें ॥
बरबस राम सुमंत्रु पठाए ।
सुरसरि तीर आपु तब आए ॥मागी नाव न केवटु आना ।
कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना ॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई ।
मानुष करनि मूरि कछु अहई ॥

छुअत सिला भइ नारि सुहाई ।
पाहन तें न काठ कठिनाई ॥
तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई ।
बाट परइ मोरि नाव उड़ाई ॥

एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू ।
नहिं जानउँ कछु अउर कबारू ॥
जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू ।
मोहि पद पदुम पखारन कहहू ॥

छंद:
पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव
न नाथ उतराई चहौं ।
मोहि राम राउरि आन
दसरथ सपथ सब साची कहौं ॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै
जब लगि न पाय पखारिहौं ।
तब लगि न तुलसीदास नाथ
कृपाल पारु उतारिहौं ॥

दोहा/सोरठा:
सुनि केबट के बैन
प्रेम लपेटे अटपटे ।
बिहसे करुनाऐन चितइ
जानकी लखन तन ॥100॥
Shri Ramcharitmanas: Ayodhya Kand: Pad 100 - Read in English
Jasu Biyog Bikal Pasu Aise । Praja Matu Pitu Jiihahin Kaisen ॥ Barbas Ram Sumantru Pathae । Surasari Teer Aapu Tab Aae ॥
अर्थात
जिनके वियोग में पशु इस प्रकार व्याकुल हैं, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे? श्री रामचन्द्रजी ने जबर्दस्ती सुमंत्र को लौटाया। तब आप गंगाजी के तीर पर आए॥1॥

श्री राम ने केवट से नाव माँगी, पर वह लाता नहीं। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म (भेद) जान लिया। तुम्हारे चरण कमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी है,॥2॥

जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई (मेरी नाव तो काठ की है)। काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊँगा (अथवा रास्ता रुक जाएगा, जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जाएगी) (मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी)॥3॥

मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने (धो लेने) के लिए कह दो॥4॥

हे नाथ! मैं चरण कमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा, मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूँ। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें, पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूँगा।

केवट के प्रेम में लपेटे हुए अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्री रामचन्द्रजी जानकीजी और लक्ष्मणजी की ओर देखकर हँसे॥100॥
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गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका ब्रज भाषा में रचित है। विनय पत्रिका में विनय के पद है। विनयपत्रिका का एक नाम राम विनयावली भी है।

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