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श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 11 (Shri Ramcharitmanas Sundar Kand Pad 11)


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चौपाई:
त्रिजटा नाम राच्छसी एका ।
राम चरन रति निपुन बिबेका ॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना ।
सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥1॥
सपनें बानर लंका जारी ।
जातुधान सेना सब मारी ॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा ।
मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥2॥

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई ।
लंका मनहुँ बिभीषन पाई ॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई ।
तब प्रभु सीता बोलि पठाई ॥3॥

यह सपना में कहउँ पुकारी ।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी ॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं ।
जनकसुता के चरनन्हि परीं ॥4॥

दोहा:
जहँ तहँ गईं सकल तब
सीता कर मन सोच ।
मास दिवस बीतें मोहि
मारिहि निसिचर पोच ॥11॥
यह भी जानें
अर्थात

उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी। उसकी श्री रामचंद्रजी के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक (ज्ञान) में निपुण थी। उसने सबों को बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया और कहा- सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो॥1॥

स्वप्न (मैंने देखा कि) एक बंदर ने लंका जला दी। राक्षसों की सारी सेना मार डाली गई। रावण नंगा है और गदहे पर सवार है। उसके सिर मुँडे हुए हैं, बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं॥2॥

इस प्रकार से वह दक्षिण (यमपुरी की) दिशा को जा रहा है और मानो लंका विभीषण ने पाई है। नगर में श्री रामचंद्रजी की दुहाई फिर गई। तब प्रभु ने सीताजी को बुला भेजा॥3॥

मैं पुकारकर (निश्चय के साथ) कहती हूँ कि यह स्वप्न चार (कुछ ही) दिनों बाद सत्य होकर रहेगा। उसके वचन सुनकर वे सब राक्षसियाँ डर गईं और जानकीजी के चरणों पर गिर पड़ीं॥4॥

तब (इसके बाद) वे सब जहाँ-तहाँ चली गईं। सीताजी मन में सोच करने लगीं कि एक महीना बीत जाने पर नीच राक्षस रावण मुझे मारेगा॥11॥

Granth Ramcharitmanas GranthSundar Kand Granth

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