Shri Krishna Bhajan

श्री रामचरितमानस: लंका काण्ड: पद 2 (Shri Ramcharitmanas Lanka Kand Pad 2)


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चौपाई:
सैल बिसाल आनि कपि देहीं ।
कंदुक इव नल नील ते लेहीं ॥
देखि सेतु अति सुंदर रचना ।
बिहसि कृपानिधि बोले बचना ॥1॥
परम रम्य उत्तम यह धरनी ।
महिमा अमित जाइ नहिं बरनी ॥
करिहउँ इहाँ संभु थापना ।
मोरे हृदयँ परम कलपना ॥2॥

सुनि कपीस बहु दूत पठाए ।
मुनिबर सकल बोलि लै आए ॥
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा ।
सिव समान प्रिय मोहि न दूजा ॥3॥

सिव द्रोही मम भगत कहावा ।
सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥
संकर बिमुख भगति चह मोरी ।
सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥4॥

दोहा:
संकर प्रिय मम द्रोही
सिव द्रोही मम दास ।
ते नर करहि कलप भरि
धोर नरक महुँ बास ॥2 ॥
हिन्दी भावार्थ

वानर बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंद की तरह ले लेते हैं। सेतु की अत्यंत सुंदर रचना देखकर कृपासिन्धु श्री रामजी हँसकर वचन बोले॥1॥

यह (यहाँ की) भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। मैं यहाँ शिवजी की स्थापना करूँगा। मेरे हृदय में यह महान्‌ संकल्प है॥2॥

श्री रामजी के वचन सुनकर वानरराज सुग्रीव ने बहुत से दूत भेजे, जो सब श्रेष्ठ मुनियों को बुलाकर ले आए। शिवलिंग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया (फिर भगवान बोले-) शिवजी के समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है॥3॥

जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शंकरजी से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है॥4॥

जिनको शंकरजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिवजी के द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं ॥2॥

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