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सच्चा सपूत कौन ? - प्रेरक कहानी (Who is the true son?)


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एक गाँव में तलाब था। उस तलाब पर तीन स्त्रियां पानी भरने गयी। वहाँ पर पहले से ही एक बूढ़ा आदमी बैठ कर के कुछ खा रहा था। तीनों औरतें जमीन पर अपने-अपने घड़े रख कर बैठ गई और उस बूढ़े को सुना कर आपस में बातें करने लगी।
एक औरत ने दूसरी औरत से कहा - पंडित पोथाराम का शिष्य और मेरा लड़का बाहर से पढ़ कर शास्त्रों का ज्ञान सीख के आया है। उसने पूरे मोहल्ले में धूम मचा कर के रख दी है। पूरे गाँव में बस हमारे लड़के की ही चर्चे हो रहे हैं। अपने बेटे की बढाई और करते हुए उसने कहा कि सुनो सखी वह आकाश के तारों को गिन कर उसका नाम बता देता है।

स्वर्गलोक की सारे बातें उसे पूरी तरह मालूम है। यमराज के दरबार में कैसे फैसला होता है, उसको ये भी मालूम है। सभी देवगणों के नाम, यमदूतों के नाम और सभी नर्कों के नाम-धाम सब उसे याद है। पता नहीं कैसे भगवान की सब बातें जान लेता है? जब वह शादी-ब्याह कराता है, तो सारे पंडित उसके आगे चुप हो जाते हैं।

मैं ऐसे पंडित को जन्म देकर अपने को बहुत धन्य मानती हूँ। बाहर जब भी कोई मुझे देखता है तो कहता है- देखो शास्त्री जी की माँ जा रही है।

उसकी बात सुन कर दूसरी औरत बोली- अरे सखी मेरे बेटे का गुण सुनोगी तो तुम भी सोच में डूब जाओगी। मेरे बेटे जैसा पहलवान दस-बीस गाँव में नहीं है। वह रोज 500 उठक-बैठक सुबह और शाम दोनों समय लगाता है।

अखाड़ों में जब वह ताल ठोक के उतरता है तो बड़े-बड़े पहलवान उसके आगे अपनी जान की भीख मांगने लगते हैं। बहन जी, सच मानना उसके जितना पहलवानी में नाम आज तक किसी ने नहीं कमाया। मैं उसे हलवा, मालपुआ दिनभर खिलाती रहती हूँ।

खा-पीकर जब वह हाथी की तरह झूमता हुआ सैर करने निकलता है तो मै फूली नहीं समाती। अभी-अभी मैं जिस रास्ते से आ रही थी रास्ते में एक आदमी ने मेरी तरफ देखते हुए अपने बेटे से कहा देखो पहलवान की माँ जा रही है। मेरे बेटे जैसा लड़का शायद ही किसी का होगा।

सच मानो सखी मैं अपने बेटे की बड़ाई सुन कर खुशियों से झूम उठती हूँ। दोनों स्त्रियों की बातों को सुन कर तीसरी औरत चुप रही। इस पर एक स्त्री बोली तेरी हालत देख के ऐसा लगता है, मानो तेरा बेटा लायक नहीं निकला।

इस बात पर तीसरी औरत बोली- देखो मेरा बेटा जैसा भी है, मेरे लिए बहुत अच्छा है। उसे नाम कमाने की लालसा नहीं है।

वह बिल्कुल सीधे स्वभाव का है, दिनभर खेतों में काम करता है, शाम को घर आकर घर के लिए पानी भर देता है। घर के काम से उसे उतना समय ही नहीं मिलता कि वह नाम कमायें। आज मेरे बहुत कहने पर वह मेला देखने गया है, तभी मुझे पानी भरने आना पड़ा।

मुझे आज इधर आते देख कर देखने वाले इसी बात पर आश्चर्य करते थे कि मुझे पानी भरने के लिए कैसे निकलना पड़ा। तीनों स्त्रियों की बातें समाप्त हुई तो वे जल्दी-जल्दी अपने पानी के घड़ों को भर कर वहाँ से अपने घर के लिए रवाना हो गयी।

बूढा आदमी भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। थोड़ी दूर चलने के बाद पीछे से तीन युवक आ रहे थे, वे तीनों उन स्त्रियों के लड़के थे, मेले से घर लौट रहे थे।

एक ने अपनी पहली स्त्री के पास जाकर कहा- माँ मैं बहुत भाग्यशाली हूँ, कि इस रास्ते से जा रहा हूँ, क्योंकि रास्ते में तुम मिल गयी यह कह कर वह जल्दी-जल्दी अपने घर को जाने लगा।

दूसरे लड़के ने दूसरी स्त्री से कहा- माँ, मैं मेले के दंगल में बाजी मार कर आ रहा हूँ। जल्दी पानी लेकर घर आना मुझे बहुत भूख लगी है। यह कह कर दूसरा लड़का भी घर की ओर चला गया।

इसके बाद तीसरा लड़का आया।
तीसरी औरत के पास आया और उसके हाथ से पानी का घड़ा लेकर बोला- माँ तू पानी भरने क्यों आयी?, मैं तो आ ही रहा था। वह घड़ा लेकर अपने घर की ओर चल पड़ा।

तब अपने-अपने बेटों की ओर इशारा करते हुए तीनों स्त्रियों ने चलने वाले बूढ़े आदमी से पूछा- बाबा, तुम हमारे बेटों के बारे में क्या कहते हो?

बूढा आदमी अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरता हुआ बोला- तुम लोग अपने-अपने बेटों के बारे में चाहे जो कुछ भी कहो, मेरी राय में तीनों में से केवल एक लड़के के पास ऐसी नैतिक शिक्षा का अर्थ मालूम है, जिसे बेटा कहा जा सकता है। पहले दो तो अपनी-अपनी माँ के पेट से निकलकर उनसे बहुत दूर हो गए हैं। तीसरा अपनी माँ के शरीर से अलग होते हुए भी माँ के मन से मन मिलाए हुए हैं। जिसमें आत्मीयता है, उसी को सपूत मानता हूँ

बूढ़े आदमी की बात सुन कर दोनों स्त्रियों के मुँह शर्म से छोटे होकर नीचे झुक गए जैसे पेड़ से चमगादड़ लटकता है। तीसरी स्त्री का मुँह गर्व से ऊँचा हो गया।

कहानी से हमें ये सीख मिलती है कि अगर घर में कोई बुजुर्ग लड़के के सामने काम करें और लड़का सैर-सपाटे और अय्याशी करें तो इससे ज्यादा शर्म की बात उस लड़के के लिए कुछ नहीं हो सकती है। घर के काम में हाथ बंटाना, बड़े बुजुर्गों की सेवा करना, जितना हो सके घर का काम बड़ों के करने के बजाय खुद करना यही एक अच्छे सपूत की पहचान होती है। ऐसे सच्चे सपूत ही भगवन के अति प्रिय भी होते हैं।

साथियों हमको अपने माता -पिता की सेवा सच्चे मन से करनी चाहिए। क्योंकि माता-पिता की सेवा के बिना पूरा कमाया हुआ धर्म एक तिनके के समान है।

अगर हमारे माता-पिता खुश है, उनको किसी प्रकार का दु:ख हमारी वजह से नहीं पहुँचता हो, तो एक बेटे के लिए इससे बड़ी सपूत कहलाने की बात कुछ नहीं हो सकती।
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