Shri Ram Bhajan

श्रीषङ्गोस्वाम्यष्टकम् (Sri Sad-Goswamyastakam)


श्रीषङ्गोस्वाम्यष्टकम्
कृष्णोत्कीर्तन-गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भोनिधी
धीराऽधीरजन-प्रियौ प्रियकरौ निर्मत्सरौ पूजितौ ।
श्रीचैतन्यकृपाभरौ भुवि भुवो भारावहन्तारको
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥1॥
नानाशास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापकौ
लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ-शरण्याकरौ ।
राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनानन्देन मत्तालिको
वन्दे-रूप सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥2॥

श्रीगौराङ्ग-गुणानुवर्णन-विधौ श्रद्धा-समृद्धयान्वितौ
पापोत्ताप-निकृन्तनौ तनुभृतां गोविन्द-गानामृतैः ।
आनन्दाम्बुधि-वर्धनैक-निपुणौ कैवल्य-निस्तारको
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥3॥

त्यक्त्वा तूर्णमशेष-मण्डलपति-श्रेणीं सदा तुच्छवत्
भूत्वा दीनगणेशकौ करुणया कौपीन-कन्याश्रितौ ।
गोपीभाव-रसामृताब्धि-लहरी-कल्लोळ-मग्नौ मुहुः
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥4॥

कूजत्-कोकिल-हंस-सारस-गणाकीर्णे मयूराकुले
नानारत्न-निबद्ध-मूल-विटप-श्रीयुक्त-वृन्दावने ।
राधाकृष्णमहर्निशं प्रभजतौ जीवार्थदौ यौ मुदा
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥5॥

संख्यापूर्वक-नामगाननतिभिः कालावसानीकृतौ
निद्राहार-विहारकादि-विजितौ चात्यन्त-दीनौ च यौ ।
राधाकृष्ण-गुणस्मृतेर्मधुरिमानन्देन सम्मोहितौ
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥6॥

राधाकुण्ड-तटे कलिन्द-तनया तीरे च वंशीवटे
प्रेमोन्माद-वशादशेष-दशया ग्रस्तौ प्रमत्तौ सदा ।
गायन्तौ च कदा हरेर्गुणवरं भावाविभूतौ मुदा
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥7॥

हे राधे! ब्रजदेविके! च ललिते! हे नन्दसूनो! कुतः
श्रीगोवर्धन-कल्पपादप-तले कालिन्दिवन्ये कुत: ।
घोषन्ताविति सर्वतो ब्रजपुरे खेदैर्महाविह्वलौ
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥8॥
- श्री निवास आचार्य

Sri Sad-Goswamyastakam in English

Krishnotkirtan-gan-nartan-parau Premamritambhonidhi, Dhiraadhirjan-priyou Priyakarau Nirmatsarau Pujitou ।
हिन्दी भावार्थ

१. मैं श्रील रूप, सनातन, रघुनाथभट्ट, रघुनाथदास, श्रील जीव एवं गोपालभट्ट नामक छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो श्रीकृष्ण के नाम-रूप-गुण-लीलाओं के कीर्तन, गायन एवं नृत्यपरायण थे, प्रेमामृत के समुद्रस्वरूप थे, सज्जन एवं दुर्जन सभी प्रकार के लोगों में प्रिय थे तथा सभी के प्रिय कार्यों को करने वाले थे। वे ईष्र्यारहित एवं सभी द्वारा पूजित थे। वे श्रीचैतन्यदेव की अतिशय कृपा से युक्त थे और भूतल पर भक्ति का विस्तार करके भूमि का भार उतारने वाले थे।

मैं श्रील रूप-सनातनादि उन छ: गोस्वामियों की वंदना करता हूँ जो अनेक शास्त्रों के गूढ़ अर्थों पर विचार करने में परमनिपुण थे, भक्तिरूप-परमधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परमहितैषी थे, तीनों लोगों में माननीय थे, शरणागतवत्सल थे एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविन्द के भजनरूप आनन्द से मत्त मधुप के समान थे।

मैं श्रील रूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वंदना करता हूँ कि जो श्रीगौरांगदेव के गुणानुवाद की विधि में श्रद्धारूप-सम्पत्ति से युक्त थे, श्रीकृष्ण के गुणगानरूपअमृत वृष्टि के द्वारा प्राणीमात्र के पाप-ताप को दूर करने वाले थे तथा आनन्दरूप-समुद्र को बढ़ाने में परमकुशल थे, भक्ति का रहस्य समझाकर जीवों को कैवल्य मुक्ति से बचाने वाले थे।

मैं श्रील रूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वंदना करता हूँ जो लोकोत्तर वैराग्य से समस्त मण्डलों के आधिपत्य के पद को शीघ्र ही तुच्छ की तरह सदा के लिए छोड़कर, कृपापूर्वक अतिशय दीन होकर, कौपीन एवं कंथा (गुदड़ी) को धारण करने वाले थे तथा गोपीभावरूप रसामृत सागर की तरंगों में आनन्दपूर्वक निमग्न रहते थे।

मैं श्रील रूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वंदना करता हूँ जो कलरव करने वाले कोकिल-हंस-सारस आदि पक्षियों से व्याप्त तथा मयूरों के स्वर से आकुल, तथा अनेक प्रकार के रत्नों से निबद्ध मूलवाले वृक्षों के द्वारा शोभायमान श्रीवृन्दावन में, रात-दिन श्रीराधाकृष्ण का भजन करते रहते थे तथा जीवनमात्र के लिए हर्षपूर्वक भक्तिरूप परम पुरुषार्थ देने वाले थे।

मैं श्रील रूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वंदना करता हूँ जो अपने समय को संख्यापूर्वक नामजप, नाम-संकीर्तन एवं प्रणाम आदि के द्वारा व्यतीत करते थे, जिन्होंने निद्रा-आहार-विहार आदि पर विजय प्राप्त कर ली थी एवं जो स्वयं को अत्यन्त दीन मानते थे तथा श्रीराधाकृष्ण के गुणों की स्मृति से प्राप्त माधुर्यमय आनन्द के द्वारा विमुग्ध रहते थे।

मैं श्रील रूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वंदना करता हूँ जो प्रेमोन्माद के वशीभूत होकर विरह की समस्त दशाओं के द्वारा ग्रस्त होकर, प्रभादी की भाँति, कभी राधाकुण्ड के तट पर, कभी यमुना के तट पर, तो कभी वंशीवट पर सदैव घूमते रहते थे, और कभी श्रीहरि के उत्तम गुणों को हर्षपूर्वक गाते हुए भावविभोर रहते थे।

मैं श्रील रूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वंदना करता हूँ जो ‘हे व्रज की पूजनीय देवी, राधिके! आप कहाँ हैं? हे ललिते! आप कहाँ हैं? हे व्रजराजकुमार! आप कहाँ हैं ? श्रीगोवर्धन के कल्पवृक्षों के नीचे बैठे हैं अथवा कालिन्दी के सुन्दर तटों पर स्थित वनों में भ्रमण कर रहे हैं?'' इस प्रकार पुकारते हुए वे विरहजनित पीड़ाओं से महान् विह्वल होकर व्रजमण्डल में सर्वत्र भ्रमण करते थे।

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