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श्री रामचरितमानस: लंका काण्ड: पद 3 (Shri Ramcharitmanas Lanka Kand Pad 3)


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चौपाई:
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं ।
ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं ॥
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि ।
सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि ॥1॥
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि ।
भगति मोरि तेहि संकर देइहि ॥
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही ।
सो बिनु श्रम भवसागर तरिही ॥2॥

राम बचन सब के जिय भाए ।
मुनिबर निज निज आश्रम आए ॥
गिरिजा रघुपति कै यह रीती ।
संतत करहिं प्रनत पर प्रीती ॥3॥

बाँधा सेतु नील नल नागर ।
राम कृपाँ जसु भयउ उजागर ॥
बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई ।
भए उपल बोहित सम तेई ॥4॥

महिमा यह न जलधि कइ बरनी ।
पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी ॥5॥

दोहा:
श्री रघुबीर प्रताप ते
सिंधु तरे पाषान ।
ते मतिमंद जे राम तजि
भजहिं जाइ प्रभु आन ॥3॥
हिन्दी भावार्थ

जो मनुष्य (मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा (अर्थात्‌ मेरे साथ एक हो जाएगा)॥1॥

जो छल छोड़कर और निष्काम होकर श्री रामेश्वरजी की सेवा करेंगे, उन्हें शंकरजी मेरी भक्ति देंगे और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाएगा॥2॥

श्री रामजी के वचन सबके मन को अच्छे लगे। तदनन्तर वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमों को लौट आए। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रघुनाथजी की यह रीति है कि वे शरणागत पर सदा प्रीति करते हैं॥3॥

चतुर नल और नील ने सेतु बाँधा। श्री रामजी की कृपा से उनका यह (उज्ज्वल) यश सर्वत्र फैल गया। जो पत्थर आप डूबते हैं और दूसरों को डुबा देते हैं, वे ही जहाज के समान (स्वयं तैरने वाले और दूसरों को पार ले जाने वाले) हो गए॥4॥

यह न तो समुद्र की महिमा वर्णन की गई है, न पत्थरों का गुण है और न वानरों की ही कोई करामात है॥5॥

श्री रघुवीर के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गए। ऐसे श्री रामजी को छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं वे (निश्चय ही) मंदबुद्धि हैं ॥3॥

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गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका ब्रज भाषा में रचित है। विनय पत्रिका में विनय के पद है। विनयपत्रिका का एक नाम राम विनयावली भी है।

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