पितृ पक्ष - Pitru Paksha

श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 14 (Shri Ramcharitmanas Sundar Kand Pad 14)


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चौपाई:
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी ।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना ।
भयउ तात मों कहुँ जलजाना ॥1॥
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी ।
अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥
कोमलचित कृपाल रघुराई ।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥2॥

सहज बानि सेवक सुख दायक ।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता ।
होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता ॥3॥

बचनु न आव नयन भरे बारी ।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता ।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥4॥

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता ।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥
जनि जननी मानहु जियँ ऊना ।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ॥5॥

दोहा:
रघुपति कर संदेसु अब
सुनु जननी धरि धीर ।
अस कहि कपि गद गद भयउ
भरे बिलोचन नीर ॥14॥
यह भी जानें
अर्थात

भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया (सीताजी ने कहा-) हे तात हनुमान्‌! विरहसागर में डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए॥1॥

मैं बलिहारी जाती हूँ, अब छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित खर के शत्रु सुखधाम प्रभु का कुशल-मंगल कहो। श्री रघुनाथजी तो कोमल हृदय और कृपालु हैं। फिर हे हनुमान्‌! उन्होंने किस कारण यह निष्ठुरता धारण कर ली है?॥2॥

सेवक को सुख देना उनकी स्वाभाविक बान है। वे श्री रघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? हे तात! क्या कभी उनके कोमल साँवले अंगों को देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे?॥3॥

(मुँह से) वचन नहीं निकलता, नेत्रों में (विरह के आँसुओं का) जल भर आया। (बड़े दुःख से वे बोलीं-) हा नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया! सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर हनुमान्‌जी कोमल और विनीत वचन बोले-॥4॥

हे माता! सुंदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित (शरीर से) कुशल हैं, परंतु आपके दुःख से दुःखी हैं। हे माता! मन में ग्लानि न मानिए (मन छोटा करके दुःख न कीजिए)। श्री रामचंद्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है॥5॥

हे माता! अब धीरज धरकर श्री रघुनाथजी का संदेश सुनिए। ऐसा कहकर हनुमान्‌जी प्रेम से गद्गद हो गए। उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥14॥

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