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श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 51 (Shri Ramcharitmanas Sundar Kand Pad 51)


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चौपाई:
सखा कही तुम्ह नीकि उपाई ।
करिअ दैव जौं होइ सहाई ॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा ।
राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥1॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा ।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ॥
कादर मन कहुँ एक अधारा ।
दैव दैव आलसी पुकारा ॥2॥

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा ।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई ।
सिंधु समीप गए रघुराई ॥3॥

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई ।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए ।
पाछें रावन दूत पठाए ॥4॥

दोहा:
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह ।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥51॥
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हिन्दी भावार्थ

(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी। श्री रामजी के वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुःख पाया॥1॥

(लक्ष्मणजी ने कहा-) हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिए। यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥2॥

यह सुनकर श्री रघुवीर हँसकर बोले- ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो। ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्र के समीप गए॥3॥

उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए। इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे॥4॥

कपट से वानर का शरीर धारण कर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं। वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे॥51॥

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