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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 20 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 20)


पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 20
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सूतजी बोले - हे विप्रो! नारायण के मुख से राजा दृढ़धन्वा के पूर्वजन्म का वृत्तान्त श्रवणकर अत्यन्त तृप्ति न होने के कारण नारद मुनि ने श्रीनारायण से पूछा।
नारद जी बोले - हे तपोधन! महाराज दृढ़धन्वा ने मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि जी से क्या कहा? सो विस्तार सहित विनीत मुझको कहिये।

नारायण बोले - हे नारद! सुनिये। राजा दृढ़धन्वा ने महाप्राज्ञ मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि की प्रार्थना कर, जो कुछ कहा सो मैं कहूँगा।

दृढ़धन्वा बोला - मोक्ष की इच्छा करने वाले लोगों से पुरुषोत्तम मास का सेवन किस प्रकार किया जाय? क्या दान दिया जाय? और इसकी विधि क्या है?

यह सब संपूर्ण लोक के कल्याण के लिये मुझसे कहिये, क्योंकि आपके समान महात्मा संसार के हित के लिये ही पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं। यह पुरुषोत्तम मास स्वयं साक्षात्‌ पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं, उस पुरुषोत्तम मास के सेवन से महान्‌ पुण्य होता है। यह बात मैंने आपके मुख से भली-भाँति सुनी है। मैंने पूर्वजन्म में सुदेव नामक ब्राह्मण श्रेष्ठ होकर विधि से पुरुषोत्तम मास का सेवन किया। जिसके प्रताप से मेरा मृत पुत्र उठ खड़ा हो गया। हे ब्रह्मन्‌! पुत्रशोक के कारण निरन्तर निराहारी मेरा यह पुरुषोत्तम मास बिना जाने ही बीत गया। अज्ञान से हुये पुरुषोत्तम मास का ऐसा फल हुआ कि मृत्यु को प्राप्त भी शुकदेव उठ खड़ा हो गया। हरि भगवान्‌ के कहने पर इस अनुभूत पुरुषोत्तम मास का सेवन किया।

हे तपोधन! मुझे इस जन्म में वह सब विस्मृत हो गया है। इसलिये इस पुरुषोत्तम मास का पूजन विधान विस्तार पूर्वक मुझसे फिर कहिये।

बाल्मीकि जी बोले - ब्राह्म मुहूर्त में उठकर परब्रह्म का चिन्तन करे उसके बाद बड़े पात्र में जल लेकर नैर्ऋत्य दिशा में जाय। पुरुषोत्तम मास को सेवन करने वाला शौच के लिये ग्राम से बहुत दूर जाय। दिन में तथा सन्ध्या में कान पर जनेऊ को रख कर और उत्तरमुख होकर पृथिवी को तृण से आच्छादित कर वस्त्र से शिर बाँध कर और मुख को बन्द कर अर्थात्‌ मौन होकर रहे, न थूके और न श्वाँस ले। इस तरह मल-मूत्र का त्याग करे। और यदि रात्रि हो तो दक्षिण मुख होकर मल-मूत्र का त्याग करे और मूत्रेन्द्रिय को पकड़ कर उठे। शुद्ध मिट्टी को ले, आलस्य छोड़कर दुर्गन्ध दूर करने के लिये मृत्तिका से शुद्धि करे। लिंग में एक बार, गुदा में पाँच बार, बायें हाथ में तीन बार, दोनों हाथों में दश बार मिट्टी लगावे, दोनों पैरों में १४ बार लगावे। यह गृहस्थाश्रमी को शौच कहा है। इस तरह शौच कर मिट्टी और जल से पैर और हाथ धोकर दूसरा कार्य करे।

तीर्थ में शौच न करे। तीर्थ से जल निकाल कर शौच करे। दो हाथ जलवाले गढ़ई को छोड़ कर यदि अनुद्‌धृत जल में अर्थात्‌ तीर्थ में शौच करे तो बाद तीर्थ की शुद्धि करे अन्यथा तीर्थ अशुद्ध हो जाता है। इस प्रकार पुरुषोत्तम का उत्तम व्रत करने वाला शौच करे।

तदनन्तर सोलह कुल्ला अथवा बारह कुल्ला करे। मूत्र का त्याग करने के बाद आठ अथवा चार कुल्ला गृहस्थ करे। उठकर प्रथम नेत्रों को धो डाले। दातुन ले आवे और इस मन्त्र को अच्छी तरह कह कर दन्तधावन करे।

हे वनस्पते! आयु, बल, यश, वर्च, प्रजा, पशु, वसु, ब्रह्मज्ञान और मेधा को मेरे लिए दो।

अपामार्ग अथवा बैर की बारह अंगुल की छेदरहित दातुन कानी अंगुली के समान सोटी हो जिसके पर्व के आधे भाग में कूची बनी हो उस दातुन से मुख शुद्धि करे।

रविवार के दिन काष्ठ से दातुन करना मना किया है। इसलिये बारह कुल्ला से मुखशुद्धि करे। आचमन कर अच्छी तरह प्रातःकाल में स्नान करे।

स्नान के बाद उसी समय तीर्थ के देवताओं को तर्पण के द्वारा जल देवे। और समुद्र में मिली हुई नदी में स्नान करना उत्तम कहा है। बावली कूप तालाब में स्नान करना विद्वानों ने मध्यम कहा है और गृहस्थ को गृह में स्नान करना सामान्य कहा है।

स्नान के बाद शुद्ध और शुक्ल ऐसे दो वस्त्रों को धारण करे। ब्राह्मण कन्धे पर रखे जानेवाले उत्तरीय वस्त्र को सावधानी के साथ हमेशा धारण करे।

पवित्र स्नान में पूर्व मुख अथवा उत्तर मुख होकर बैठे और शिखा बाँध कर दोनों जाँघों के अन्दर हाथों को रखे।

कुश की पवित्री हाथ में धारण कर आचमन क्रिया को करे। ऐसा करने से पवित्री अशुद्ध नहीं होती है। परन्तु भोजन करने से पवित्री अशुद्ध हो जाती है। इसलिये भोजन के बाद उस पवित्री का त्याग करे।

आचमन के बाद गोपीचन्दन की मिट्टी से तिलक धारण करे। वह तिलक ऊर्ध्वपुण्ड्र हो, सीधा हो, सुन्दर हो, दण्ड के आकार का हो ऐसा धारण करे। ऊर्ध्वपुण्ड्र हो अथवा त्रिपुण्ड्र हो उसके मध्य में छिद्र बनावे।

ऊर्ध्वपुण्ड्र में लक्ष्मी के साथ हरि भगवान्‌ स्वयं निवास करते हैं। त्रिपु्ण्ड्र में पार्वती सहित साक्षात्‌ शंकर भगवान्‌ सर्वदा वास करते हैं। बिना छिद्र का पुण्ड्र कुत्ते के पैर के समान विद्वानों ने कहा है।

सफेद तिलक ज्ञान को देने वाला है, लाल तिलक मनुष्यों को वशीकरण करनेवाला कहा है, पीला समस्त ऋद्धि को देनेवाला कहा है। इससे भिन्न तिलक को नहीं लगावे।

गोपीचन्दन की मिट्टी से शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि धारण करे। यह सम्पूर्ण पापों को नाश करने वाला और पूजा का अंग कहा गया है। जिसके शरीर में शंख चक्रादि भगवान्‌ के आयुधों का चिह्न देखने में आता है उस मनुष्य को, मनुष्य नहीं समझना। वह भगवान्‌ का शरीर है। जो शंख चक्र आदि चिह्नों को नित्य धारन करता है, उस देही के पाप पुण्यरूप हो जाते हैं। नारायण के आयुधों से जिसका शरीर चिह्नित रहता है उसका कोटि-कोटि पाप होने पर भी यमराज क्या कर सकता है?

प्राणायाम करके सन्ध्यावन्दन करे। प्रातःकाल की सन्ध्या विधिपूर्वक नक्षत्र के रहने पर करे। जब तक सूर्यनारायण का दर्शन न हो तब तक गायत्री मन्त्र का जप करे और सूर्योपस्थान के मन्त्रों से उठकर अञ्जकलि बाँध कर उपस्थान करे।

सायंकाल के समय अपने पैर को पृथिवी में करके नमस्कार करे। जो कमी रह गई हो उसको इस मन्त्र से पूर्ण करे।
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्याम तपोयज्ञक्रियादि्षु ।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्‌ ॥

जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) श्रद्धा के साथ सन्ध्या करता है उसको तीनों लोक में कुछ भी दुष्प्राप्य नहीं है।

दिन के आदि भाग (प्रातःकाल) में होने वाले कृत्य को कहा! इस प्रकार प्रातःकाल की नित्य क्रिया को करके हरि भगवान्‌ की पूजा को करे।

लीपे हुए शुद्ध स्थान में नियम में स्थित होकर और मौन तथा पवित्र होकर गोबर से गोल अथवा चौकोर मण्डल को बना कर व्रत की सिद्धि के लिये चावलों से अष्टदल कमल बनावे। बाद सुवर्ण, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टी का मजबूत और नवीन छिद्र रहित शुद्ध कलश को उस मण्डल के ऊपर स्थापित करे और उस कलश में शुद्ध तीर्थों से लाये हुए कल्याणप्रद जल को भर कर।

कलश के मुख में विष्णु, कण्ठ में रुद्र भगवान्‌ अच्छी तरह वास करते हैं। उसके मूल में ब्रह्मा जी स्थित रहते हैं, मध्य भाग में मातृगण कहे गये हैं। कोख में समस्त समुद्र और सात द्वीप वाली वसुन्धरा, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्व वेद। व्याकरण आदि अंगों के साथ सब कलश में स्थित हों। इस प्रकार कलश को स्थापित करके उसमें तीर्थों का आवाहन करे, गंगा, गोदावरी, कावेरी और सरस्वती मेरी शान्ति के लिये तथा पापों के नाश करने के हेतु आवें।

तदनन्तर उस कलश का मन्त्रपाठ पूर्वक गन्ध, अक्षत, नैवेद्य और उस काल में होने वाले पुष्प आदि उपचारों से पूजन करके उसके ऊपर पीले वस्त्र से लपेटा हुआ ताँबे का पात्र स्थापित करे। उस पात्र के ऊपर राधा के साथ हरि की मूर्ति को स्थापित करे।

राधा के सहित सुवर्ण की पुरुषोत्तम भगवान्‌ की प्रतिमा बनावे और भक्ति में तत्पर होकर विधि के साथ उस प्रतिमा की पूजा करे।

पुरुषोत्तम मास के पुरुषोत्तम देवता हैं। पुरुषोत्तम मास के आने पर उनकी पूजा करनी चाहिये। जो इस संसार सागर में डूबे हुये को उबारता है उसकी इस लोक में भी मृत्यु धर्म वाला कौन मनुष्य पूजा नहीं करता है?

ग्राम फिर मिलते हैं, धन फिर मिलता है, पुत्र फिर मिलते हैं, गृह फिर मिलता है, शुभ-अशुभ कर्म फिर मिलते हैं, परन्तु शरीर फिर-फिर नहीं मिलता है। उस शरीर की रक्षा धर्म के लिये और धर्म की रक्षा ज्ञान के लिये हुआ करती है और ज्ञान से मोक्ष सुलभ हुआ करता है। इसलिये धर्म को करना चाहिये। देहरूप वृक्ष का फल सनातन धर्म कहा गया है जो शरीर धर्म से रहित है वह बाँझ वृक्ष के समान निष्फल है।

सहायता के लिये न माता कही गई है न स्त्री-पुत्र आदि कहे गये हैं तथा न पिता, न सहोदर भाई, न धन कहे गये हैं। केवल धर्म ही उसका प्रधान कारण कहा गया है।

वृद्धावस्था सिंहिनी के समान भय देने वाली है और रोग शत्रु के समान पीड़ा देने वाले हैं। फूटे हुए बर्तन से जल गिरने के समान आयु प्रतिदिन क्षीण होती रहती है। जल के तरंग के समान चंचल लक्ष्मी, पुष्प के समान क्षणमात्र में मुरझाने वाली युवावस्था, स्वप्न के राज्यसुख के समान संसार के विषयसुख प्रभृति सब निरर्थक हैं। धन चंचल है, चित्त चंचल है और संसार में होने वाला सुख चंचल है। ऐसा जान कर संसार से विरक्त होकर धर्म के साधन में तत्पर होवे।

जैसे सर्प से आधा देह निगले जाने पर भी मेढक मक्खी को खाने की इच्छा करता ही रहता है, उसी प्रकार काल से ग्रसा हुआ जीव दूसरे को पीड़ा देने में तथा दूसरे का धन अपहरण करने में प्रेम करता है। मृत्यु से ग्रस्त आयु वाले पुरुष को सुख क्या हर्ष करता है? वध के लिये वधस्थान को पहुँचाये जाने वाले पशु के समान सब सुख व्यर्थ हैं।

जब धर्म करने के लिये चित्त होता है तो उस समय धन का मिलना सुलभ नहीं होता है, जब धन होता है तो उस समय चित्त धर्म करने के लिये उत्सुक नहीं होता है। जब चित्त और धन दोनों होते हैं तो उस समय सम्पात्र नहीं मिलते हैं। इसलिये चित्त, वित्त, सत्पात्र इन तीनों का जिस समय सम्बन्ध हो जाय। उसी समय बिना विचार किये ही जो धर्म को करता है वही बुद्धिमान्‌ कहा गया है। अधिक धन के व्यय से होने वाले हजारों धर्म हैं, पुरुषोत्तम मास में थोड़े धन से महान्‌ धर्म होता है। स्नान, दान और कथा में विष्णु भगवान्‌ का स्मरण करना, इतना भी उत्तम धर्म यदि किया जाय तो वह महान्‌ भय से रक्षा करता है।

जिस प्रकार गंगा ही तीर्थ हैं, कामदेव ही धनुषधारी हैं, विद्या ही धन है और गुण ही रूप है उसी तरह संपूर्ण महीनों में उत्तम पुरुषोत्तम मास साक्षात्‌ पुरुषोत्तम ही हैं। यद्यपि यह पुरुषोत्तम मास प्रथम समस्त कार्यों में तथा यज्ञों में अत्यन्त निन्द्य था तो भी भगवान्‌ के प्रसाद से पृथिवी में साक्षात्‌ भगवान्‌ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

जिस प्रकार हाथी के पैर में सब प्राणियों के पैर लीन हो जाते हैं उसी तरह समस्त धर्म और कला समस्त पुरुषोत्तम में विलीन हो जाते हैं।

जिस प्रकार और-और नदियों की तुलना गंगा के समान नहीं की जा सकती। कल्पवृक्ष के समान अन्य समस्त वृक्ष नहीं कहे जा सकते। चिन्तामणि के समान दूसरे रत्न पृथिवी में नहीं हो सकते। कामधेनु के समान दूसरी गौ नहीं हो सकती, राजा के समान दूसरे पुरुष नहीं हो सकते। वेदों के समान समस्त शास्त्र नहीं होते, उसी प्रकार समस्त पुण्यकाल इस पुरुषोत्तम मास के पुण्यकाल के समान नहीं हो सकते।

पुरुषोत्तम मास के देवता पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं। इसलिये भक्ति और श्रद्धा से पुरुषोत्तम भगवान्‌ की पूजा करनी चाहिये। शास्त्र को जानने वाला, कुशल, शुद्ध, वैष्णव, सत्यवादी और विप्र आचार्य को बुलाकर उसके द्वारा पुरुषोत्तम की पूजा करे।

अन्तःकरण में होने वाले मोह, काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य आदि रूप बड़ी-बड़ी मछलियों से पूर्ण, अत्यन्त गम्भीर वेगवाले इस संसाररूप सागर को पार करने की इच्छा करता है वह इस भारतवर्ष में आदि देवता पुरुषोत्तम भगवान्‌ का अच्छी तरह पूजन करे।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये विंशतितमोऽध्यायः ॥२०॥
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