आनन्द साधु | मैं तो केवल भेष से साधू हूँ
एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला हुआ था। एक बार रात हो जाने पर वह एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के दरवाजे पर रुका। आनंद ने साधू की खूब सेवा की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर साधू को विदा किया।
साधु ने आनंद के लिए प्रार्थना की- भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।
साधु की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला- अरे, महात्मा जी! जो है, यह भी नहीं रहने वाला।
साधु आनंद की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया।
दो वर्ष बाद साधू फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है। पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है। साधु आनंद से मिलने गया।
आनंद ने अभाव में भी साधु का स्वागत किया। झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया। खाने के लिए सूखी रोटी दी। दूसरे दिन जाते समय साधु की आँखों में आँसू थे । साधु कहने लगा- हे भगवान् ! ये तूने क्या किया ?"
आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला- महाराज आप क्यों दु:खी हो रहे हैं? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान इन्सान को जिस हाल में रखे, इन्सान को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और सुनो ! यह भी नहीं रहने वाला।
साधु मन ही मन सोचने लगा- मैं तो केवल भेष से साधु हूँ । सच्चा साधु तो तू ही है, आनंद।
कुछ वर्ष बाद साधु फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है। मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था, मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया।
साधु ने आनंद से कहा- अच्छा हुआ, वो जमाना गुजर गया । भगवान् करे अब तू ऐसा ही बना रहे।
यह सुनकर आनंद फिर हँस पड़ा और कहने लगा- महाराज ! अभी भी आपकी नादानी बनी हुई है।
साधु ने पूछा- क्या यह भी नहीं रहने वाला ?
आनंद ने उत्तर दिया- हाँ! या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा। कुछ भी रहने वाला नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा का अंश आत्मा।
आनंद की बात को साधु ने गौर से सुना और चला गया।
साधु कई साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं, और आनंद का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है।
कह रहा है आसमां यह समां कुछ भी नहीं।
रो रही हैं शबनमें, नौरंगे जहाँ कुछ भी नहीं।
जिनके महलों में हजारों रंग के जलते थे फानूस।
झाड़ उनके कब्र पर, बाकी निशां कुछ भी नहीं।
साधु कहता है- अरे इन्सान! तू किस बात का अभिमान करता है? क्यों इतराता है? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता। तू सोचता है पड़ोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ, लेकिन सुन, न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा। सच्चे इन्सान वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते हैं, और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं।
साधु कहने लगा- धन्य है आनंद! तेरा सत्संग, और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु! मैं तो झूठा साधु हूँ, असली फकीरी तो तेरी जिन्दगी है। अब मैं तेरी तस्वीर देखना चाहता हूँ, कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं।
साधु दूसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद ने अपनी तस्वीर पर लिखवा रखा है- आखिर में यह भी नहीं रहेगा।
आशा है भक्ति भारत की यह प्रेरक कहानी आपको अवश्य पसंद आई होगी।