अंतिम समय...
आखिर सूर के जीवन की शाम ढल आई। सूर गोवर्धन से नीचे उतरकर घाटी मे आ गए और आखिरी साँसे लेने लगे। उधर श्री वल्लभाचार्य जी के सुपुत्र गोस्वामी विटठलनाथ जी ने अपने सभी गुरू-भाइयो और शिष्यो के बीच डुगडुगी बजवा दी: भगवद मार्ग का जहाज अब जाना चाहता है। जिसने आखिरी बार दर्शन करना है, कर लो।
समाचार मिलते ही जनसमूह सूर की कुटिया तक उमड़ पडा। जिसने अपने कंठ की वीणा को झनका-झनका कर प्रभु-मिलन के गीत सुनाए, आज उसी से बिछुडने की बेला थी। भक्त-ह्र्दय भावुक हो उठे थे। बहुत संभालने पर भी सैकडो आंखो से रुलाइयाँ फूट रही थी। इसी बीच गुरूभाई चतुर्भुजदास जी ने सूर से एक प्रश्न किया: देव, एक जिज्ञासा है। शमन करे।
सूरदास जी: कहो भाई।
चतुर्भुजदास जी: देव, आप जीवन भर कृष्ण-माधुरी छलकाते रहे। कृष्ण प्रेम मे पद रचे, कृष्ण-धुन मे ही मंजीरे खनकाए। कृष्ण-कृष्ण करते-करते आप कृष्णमय हो गए। परन्तु...
सूरदास जी: परन्तु क्या, चतुर्भुज..?
चतुर्भुजदास जी: ..परन्तु आपने अपने और हम सबके गुरुदेव श्री वल्लभाचार्य जी के विषय मे तो कुछ कहा ही नही। गुरू-महिमा मे तो पद ही नही रचे।
यह सुनकर सूर सरसीली सी आवाज मे बोले: अलग पद तो मै तब रचता, जब मै गुरुवर और कृष्ण मे कोई भेद मानता। मेरी दृष्टि मे तो स्वयं कृष्ण ही मुझे कृष्ण से मिलाने "वल्लभ" बनकर आए थे।
ऐसा कहते ही सूर ने आखिरी सांस भरी और जीवन का आखिरी पद गुना। उनकी आंखे वल्लभ-मूर्ति के चरणो मे गडी थी और वे कह रहे थे।
भरोसो द्रढ इन चरनन केरौ,
श्री वल्लभ नखचन्द्र छटा बिनु-सब जग मांझ अन्धेरो ।
साधन और नहीं या कलि मे जासो होत निबेरौ ।
सूर कहा कहै द्विविध आंधरौ बिना मोल के चेरौ ।।
मुझे केवल एक आस, एक विश्वास, एक द्रढ भरोसा रहा-और वह इन(गुरू) चरणों का ही रहा। श्री वल्लभ न आते, तो सूर सूर न होता। उनके श्री नखो की चाँदनी छटा के बिना मेरा सारा संसार घोर अंधेरे मे समाया रहता।
मेरे भाइयो, इस कलीकाल मे पूर्ण गुरू के बिना कोई साधन, कोई चारा नही, जिसके द्वारा जीवन-नौका पार लग सके।
सूर आज अंतिम घडी में कहता है कि, मेरे जीवन का बाहरी और भीतरी दोनो तरह का अंधेरा मेरे गुरू वल्लभ ने ही हरा। वरना मेरी क्या बिसात थी। मै तो उनका बिना मोल का चेरा भर रहा।
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