महर्षि पिप्पल बड़े ज्ञानी और तपस्वी थे। उन की कीर्ति दूर दूर तक फैली हुई थीं एक दिन सारस और सारसी दोनों जल में खड़े आपस में बातें कर रहे थे कि पिप्पल को जितना बड़प्पन मिला हुआ है उससे भी अधिक महिमा सुकर्मा की है, पर उसे लोग जानते नहीं
पिप्पल ने सारस सारसी के इस वार्तालाप को सुन लिया। वे सुकर्मा को तलाश करते हुए उसके घर पहुँचें। सुकर्मा साधारण गृहस्थ था पर उसने बिना पूछे ही पिप्पल का मनोरथ कह सुनाया। तब उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह एक साधारण गृहस्थ जो योग तथा अध्यात्म के तत्वज्ञान से अपरिचित है, किस प्रकार इतनी आत्मोन्नति कर सका?
सुकर्मा से उन्होंने जब अपनी शंका उपस्थिति की तो उसने बताया कि पिता माता को साक्षात भगवान का अवतार मानकर सच्चे मन से मैं उनकी सेवा करता हूँ। यही मेरी साधना है और उसी के बल पर मैं जो कुछ बन सका हूँ सो आप की जानकारी में है ही।
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