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श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 58 (Shri Ramcharitmanas Sundar Kand Pad 58)


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चौपाई:
लछिमन बान सरासन आनू ।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती ।
सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥1॥
ममता रत सन ग्यान कहानी ।
अति लोभी सन बिरति बखानी ॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा ।
ऊसर बीज बएँ फल जथा ॥2॥

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा ।
यह मत लछिमन के मन भावा ॥
संघानेउ प्रभु बिसिख कराला ।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥3॥

मकर उरग झष गन अकुलाने ।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने ॥
कनक थार भरि मनि गन नाना ।
बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥4॥

दोहा:
काटेहिं पइ कदरी फरइ
कोटि जतन कोउ सींच ।
बिनय न मान खगेस सुनु
डाटेहिं पइ नव नीच ॥58॥
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हिन्दी भावार्थ

हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),॥1॥

ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान्‌ की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात्‌ ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥

ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥3॥

मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥4॥

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥58॥

Granth Ramcharitmanas GranthSundar Kand Granth

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गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका ब्रज भाषा में रचित है। विनय पत्रिका में विनय के पद है। विनयपत्रिका का एक नाम राम विनयावली भी है।

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