Download Bhakti Bharat APP

अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान ना टलने देना - प्रेरक कहानी (Apna Maan Bhale Tal Jae Bhakt Ka Maan Na Talane Dena)


Add To Favorites Change Font Size
एक समय श्री रंगनाथ मंदिर के महंत जो की प्रभु के बहुत प्रिय भक्त भी थे, अपने कुछ शिष्यों को साथ लेकर दक्षिण में तीर्थ दर्शन करते हुए एक नगर में पहुंचे। संध्या का समय था, मार्ग में बहुत ही रमणीय उपवन देख महंत जी का मन हुआ यही कुछ देर विश्राम कर, भोजन प्रसाद बनाकर हरिनाम संकीर्तन किया जाये।
संयोग से वह स्थान एक वेश्या का था, वेश्या वही पास के भवन में रहती थी। महंत जी और उनके शिष्यों को इस बात का पता नहीं था कि जिस जगह वह रुके हैं, विश्राम व भोजन प्रसादी कर रहे हैं वो स्थान एक वेश्या का है। वेश्या भी दूर से अपने भवन से हरि भक्तो की क्रियाओं का आनंद ले रही थी।

द्वार पर बहुत सुन्दर-सुन्दर श्वेत वस्त्र धारण किये हुए, अपने साथ अपने ठाकुर जी को भी लाये, आज मानो संतो के प्रभाव मात्र से पापआसक्त उस वेश्या के ह्रदय में भी प्रभु का प्रेम प्रस्फुटित हो रहा हो। स्वयं को बड़भागी जान उसने संतो को विघ्न न हो ये जानकर तथा अपने बारे में कुछ न बताकर दूर से ही अपने भवन से ठाकुर जी के दर्शनों का आनंद लेती रही।

जब सभी संतो का भोजन प्रसाद व संकीर्तन समाप्त हुआ तो अंत में वह वेश्या ने एक थाल में बहुत सारी स्वर्ण मुद्राएँ लेकर महंत जी के समक्ष प्रस्तुत हुई और महंत जी को प्रणाम किया व बताया की ये स्थान मेरा ही है, मैं यहाँ की मालकिन हुँ। महंत जी को बड़ी प्रसन्नता हुई ये जानकर और आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने भी कहा की यह बहुत ही रमणीय स्थान है, हमारे ठाकुर जी को भी बड़ा पसंद आया है यह स्थान, संकीर्तन में भी बड़ा मन लगा।

अब वेश्या ने वो स्वर्ण से भरा हुआ थाल महंतजी की सेवा में प्रस्तुत किया। सचे संतो का स्वाभाव होता है वो बिना जाने किसी भी अयोग्य व्यक्ति का धन या सेवा नहीं लेते हैं, और शास्त्र भी अनुमति नहीं देता है। अतः महंत जी ने उस वेश्या से कहा हम बिना जाने ये धन स्वीकार नहीं कर सकते, आपने किस तरह से यह धन अर्जित किया है?

वेश्या ने भी द्वार पर आये संतो से झूठ न कहकर सारी बात सच-सच बता दी की, मैं एक वेश्या हूँ, समाज के आसक्त पुरुषों को रिझाती हूँ, उसी से मैंने यह धन अर्जित किया है। इतना कहकर वह महंत जी के चरणों में पूर्ण समर्पण करते हुए फुट-फुट कर रोने लगी, व महंतजी से श्री ठाकुरजी की भक्ति का दान देने का अनुग्रह करने लगी।

महंत जी को भी दया आयी उसके इस अनुग्रह पर, लेकिन वे बड़े धर्म संकट में पड़ गये, यदि वेश्या का धन स्वीकार किया तो धर्म की हानि होगी और यदि शरण में आये हुए को स्वीकारा नहीं, मार्ग नहीं दिखाया तो भी संत धर्म की हानि।

अब महंत जी ने अपने रंगनाथ जी का ध्यान किया और उन्ही को साक्षी कर वेश्या के सामने शर्त रखी और कहा हम तो ये धन स्वीकार नहीं कर सकते यदि तुम ह्रदय से अपने इस बुरे कर्म को छोड़ना ही चाहती हो तो ऐसा करो इस पाप कर्म से अर्जित की हुई सारी संपत्ति को तुरंत बेचकर जो धन आये उससे हमारे रंगनाथ जी के लिए सुन्दर सा मुकुट बनवाओ।
यदि हमारे प्रभु वह मुकुट स्वीकार कर ले तो समझ लेना उन्होंने तुम्हे माफ़ करके अपनी कृपा प्रदान की है।

वेश्या का मन तो पहले ही निर्मल हो चूका था, महंत जी की आज्ञा शिरोधार्य कर तुरंत ही सम्पूर्ण संपत्ति बेचकर उसने रंगनाथ जी के लिये ३ लाख रुपये का सुन्दर मुकुट बनवाया। कुछ ही दिनों में वेश्या ने मुकुट बनवाकर अपने नगर से महंत जी के साथ रंगनाथ जी मंदिर के लिये प्रस्थान किया।

मंदिर पहुंचते ही जब यह बात समस्त ग्रामवासीयों और मंदिर के पुजारियों को पता चली की अब वेश्या के धन से अर्जित मुकुट रंगनाथजी धारण करेंगे तो सभी अपना-अपना रोष व्यक्त करने लगे, और महंत जी और उस वेश्या का मजाक उड़ाने लगे। महंत जी सिद्ध पुरुष थे और रंगनाथजी के सर्वविदित प्रेमी भक्त भी थे तो किसी ने उनका विरोध करने की चेष्ठा नहीं की।

अब देखिये जैसे ही वो वेश्या मंदिर में प्रवेश करने लगी, द्वार तक पहुंची ही थी की पूर्व का पाप बीच में आ गया, वेश्या वहीं "रजस्वला" हो गई... माथा पीट लिया अपना, फुट फुटकर रोने लगी, मूर्छित होके भूमि पे गिर पड़ी। हाय महा-दुःख, संत की कृपा हुई, रंगनाथ जी का अनुग्रह प्राप्त होने ही वाला था की रजस्वला हो गई, मंदिर में जाने लायक ही न रही।

सब लोग हसीं उड़ाने लगे, पुजारी भी महंत जी को कोसने लगे।

अब महंत जी भी क्या करते, उन्होंने वेश्या के हाथ से मुकुट लेकर स्वयं रंगनाथ जी के गर्भगृह प्रवेश कर श्री रंगनाथ जी को मुकुट पहनाने लगे। इधर महंत जी बार-बार मुकुट प्रभु के मस्तक पर धराए और रंग जी धारण ही ना करें, मुकुट बार-बार रंगनाथ जी के मस्तक से गिर जाये।

अब तो महंत जी भी निराश हो गये सोचने लगे हमसे ही बहुत बड़ा अपराध हुआ है, शायद प्रभु ने उस वेश्या को स्वीकार नहीं किया, इस लिये ठाकुर जी मुकुट धारण नहीं कर रहे हैं।

अपने भक्त को निराश देखकर रंगनाथ जी से रहा नहीं गया।

अपने श्री विग्रह से ही बोल पड़े: बाबा आप निराश मत हों, हमने तो उसी दिन उस वेश्या को स्वीकार कर लिया था जिस दिन आपने उसे आश्वासन देकर हमारे लिए मुकुट बनवाने को कहा था।

महंतजी ने बोला: प्रभु जब स्वीकार कर ही लिया है तो फिर उस बेचारी का लाया हुआ मुकुट धारण क्यों नहीं कर रहे हैं?

रंगनाथ जी बोले मुकुट तो हम उसी वेश्या के हाथ से धारण करेंगे, इतने प्रेम से लायी है तो पहनेगे भी उसी के हाथ से, उसे तो तू बाहर ही छोड़कर आ गया और खुद मुकुट पहना रहा है मुझको!

महंत जी ने कहा: प्रभु जी वो रजस्वला है, वो मंदिर में नहीं प्रवेश कर सकती।

अब तो रंगनाथ जी जिद करने लगे, इसी समय लाओ हम तो उसी के हाथ से पहनेंगे मुकुट।

मंदिर के समस्त पुजारियों ने प्रभु की ये आज्ञा सुन दाँतो तले उंगलिया दबा ली, सब विस्मित से हो गये, सम्पूर्ण मंदिर में हाहाकार मच गया, जिसने सुना वो अचंभित हो गया। रंगनाथ जी की आज्ञा को शिरोधार्य कर सैकड़ो लोगो की उपस्थिति में उस वेश्या को सम्मान पूर्वक मंदिर में प्रवेश करवाया गया।

अपने हाथो से वेश्या रंगनाथ जी को मुकुट धारण कराने लगी, नैनो से अविरल अश्रु की धाराऐं बह रही थी। कितनी अद्भुत दशा हुई होगी... ज़रा सोचो! रंगनाथ जी भक्त की इसी दशा का तो आनंद ले रहे थे।

रंगनाथ जी का श्री विग्रह बहुत बड़ा होने के कारण ऊपर चढकर मुकुट पहनाना पड़ता है, भक्त के अश्रु से प्रभु के सम्पूर्ण मुखारविंद का मानो अभिषेक हो गया। वेश्या के मुख से शब्द नहीं निकल रहे, नयन अविरल अश्रु बहा रहे है, अवर्णीय दशा है।

आज रंगनाथ जी ने उस प्रेम स्वरुप भेट स्वीकार करने हेतु अपना मस्तक नीचे झुका दिया और मुकुट धारण कर उस वेश्या को वो पद प्रदान किया जिसके लिए बड़े-बड़े देवता, संत-महात्मा हजारो वर्ष तप-अनुष्ठान करते हैं पर उन महाप्रभु का अनुग्रह प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं।

कोटि-कोटि वंदन है ऐसे संत को जो उस अन-अधिकारी वेश्या पर अनुग्रह कर श्री गोविंद के चरणों का अनुसरण करवाया!

वास्तव में प्रभु का ये ही शाश्वत सत्य स्वरुप है, सिर्फ और सिर्फ प्रेम से ही रिझते हैं, लाख जतन करलो, हजारो नियम कायदे बनालो परन्तु यदि भाव पूर्ण भक्ति नहीं है तो सब व्यर्थ है।

दीनदयाल, करुणानिधान प्रभु तक जब किसी भक्त की करुणा पुकार पहुंचती है तो अपने आप को रोक नहीं पाते और दौड़े चले आते हैं निजभक्त के पास।

प्रभु तो स्वयं प्रेम की डोरी में स्वयं बंधने के लिए तत्पर रहते हैं परन्तु उन्हें निश्चल प्रेम में बांधने वाला कोई विरला ही होता है।
यह भी जानें
अगर आपको यह prerak-kahani पसंद है, तो कृपया शेयर, लाइक या कॉमेंट जरूर करें!

Whatsapp Channelभक्ति-भारत वॉट्स्ऐप चैनल फॉलो करें »
इस prerak-kahani को भविष्य के लिए सुरक्षित / बुकमार्क करें Add To Favorites
* कृपया अपने किसी भी तरह के सुझावों अथवा विचारों को हमारे साथ अवश्य शेयर करें।

** आप अपना हर तरह का फीडबैक हमें जरूर साझा करें, तब चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक: यहाँ साझा करें

श्री गणेश एवं बुढ़िया माई की कहानी

एक बुढ़िया माई थी। मिट्टी के गणेश जी की पूजा करती थी। रोज बनाए रोज गल जाए। एक सेठ का मकान बन रहा था..

जरूरतमंदों की मदद ही सबसे बड़ी सेवा - प्रेरक कहानी

एक वैद्य गुरु गोविंद सिंह के दर्शन हेतु आनन्दपुर गया। वहाँ गुरुजी से मिलने पर उन्होंने कहा कि जाओ और जरूरतमंदों को सेवा करो।..

प्रेरक कहानी: वाह! किशोरी जी आपके नाम की कैसी अनंत महिमा है

वाह! किशोरी जी आपके नाम की कैसी अनंत महिमा है!! मुझ पर इतनी कृपा की या खुद श्रीमद्भागवत से इतना प्रेम करती हो कि रोज़ मुझ से श्लोक सुनने मे तुमको भी आनंद आता है।

छोटी सी गौरैया का श्रीकृष्ण पर विश्वास - प्रेरक कहानी

भगवन बोले: अपने घोंसले में तीन सप्ताह के लिए भोजन का संग्रह करो। आइये हम भी तब तक इस घंटी के नीचे विश्राम करे जब तक ये हमारे लिए उठाई ना जाये...

सेवभाव में स्नेह के आँसू - प्रेरक कहानी

सब्जी वाले ने तीसरी मंजिल की घंटी का बटन दबाया। ऊपर बालकनी का दरवाजा खोलकर बाहर आई महिला ने नीचे देखा।

सच्चे गुरु के बिना बंधन नहीं छूटता - प्रेरक कहानी

एक पंडित रोज रानी के पास कथा करता था। कथा के अंत में सबको कहता कि राम कहे तो बंधन टूटे। तभी पिंजरे में बंद तोता बोलता, यूं मत कहो रे पंडित झूठे।

गुरु नानक जी के आशीर्वाद का रहस्य - प्रेरक कहानी

एक बार गुरु नानक देव जी अपने शिष्यों के साथ एक ऐसे गांव में पहुंचे जहां के लोग साधु-संन्यासी लोगों को बिल्कुल भी पसंद नहीं करते थे...

Hanuman Chalisa - Hanuman Chalisa
Shiv Chalisa - Shiv Chalisa
Bhakti Bharat APP